पास हो कर भी वो पास क्यूँ नहीं
मुलाकात सा होता एहसास क्यूँ नहीं
देखकर उसे बुझती अब प्यास क्यूँ नहीं
शायद अब सब्र का दामन छूट रहा है
उम्मीद तो है क़ायम, यक़ीं टूट रहा है
हिज्र अब यादें भी वस्ल की लूट रहा है
आ जाओ कि अब, —– बस, बहुत हुआ
बुलाने और भुलाने का असमंजस बहुत हुआ
अच्छे बुरे ख्यालों का ये सर्कस बहुत हुआ
चन्द सांसें तेरे साथ जीने को बचा रखी हैं
खाहिशें जाने कितनी सीने में दबा रखी हैं
दिल ने मेरे मुझ से इक शर्त लगा रखी है
काश कि ये शर्त दिल ही जीत जाए
बन्दिशों का ये दौर जल्द ही बीत जाए
और रूबरू मेरे, मेरा मन मीत आए
- Lockdown Lamhe
- नारी सशक्तीकरण